गद्यांशं पठित्वा निर्दिष्टाः
कृतीः कुरुत।
तदा पृथुभूपेन तदर्थं धनुः सज्जीकृतम्। तदा भूमिः स्त्रीरूपं धृत्वा तस्य पुरतः प्रकटिता अभवत् अवदत् च, "हे राजेन्द्र ! तव पिता दुःशासकः वेनराजः राजधर्मस्य पालनं नाकरोत्। तदा मया चोरलुण्ठकभयात् धनधान्यपुष्पफलानि मम उदरे निहितानि। त्वं तु प्रजाहितदक्षः नृपः। यदि त्वं प्रयत्नेन कृषिकार्यं करोषि तर्हि अहं प्रसन्ना भविष्यामि। अतः धनुः त्यज। खनित्राणि, हलान्, कुद्दालकान् लवित्राणि च हस्ते गृहीत्वा प्रजाजनैः सह कृषिकार्यं कुरु।" भूमातुः उपदेशं मनसि निधाय पृथुवैन्यः नदीनां मार्गम् अवरुध्य कृषिकार्यार्थ जलस्य उपयोगम् अकरोत्। वृष्टिजलसञ्चयं कृत्वा जलव्यवस्थापनम् अकरोत्। भूमिम् उर्वरतमां कर्तुं प्रायतत। तदनन्तरं तस्मिन् क्षेत्रे जनाः धान्यबीजानि अवपन्। स नैकेभ्यः वृक्षेभ्यः विविधप्रकारकाणां बीजानां सङ्कलनं चयनं च परिश्रमेण अकरोत्। अनन्तरं बीजानां संस्करणं कृत्वा वपनम् अकरोत्। पर्जन्यानन्तरं बीजेभ्यः अङ्कुराः उद्भूताः।
अवबोधनम्।
(क) उचितं कारणं चित्वा वाक्यं पुनर्लिखत।
वेनराजः राजधर्मस्य पालनं नाकरोत् यतः \(\underline{\hspace{1cm}}\)
अवबोधनम्।
(ख) कः कं वदति ?
"यदि त्वं प्रयत्नेन कृषिकार्यं करोषि तर्हि अहं प्रसन्ना भविष्यामि।"
अवबोधनम्।
(ग) वाक्यं पुनर्लिखित्वा सत्यम्/असत्यम् इति लिखत।
पृथुभूपेन खङ्गं सज्जीकृतम्।
अवबोधनम्।
(घ) अमरकोषात् शब्दं योजयित्वा वाक्यं पुनर्लिखत।
भूमिः स्त्रीरूपं धृत्वा प्रकटिता।
शब्दज्ञानम्।
2 सप्तमीविभक्त्यन्तपदे चित्वा लिखत।
शब्दज्ञानम्।
लकारं लिखत।
त्वं प्रजाजनैः सह कृषिकार्यं कुरु।
पृथक्करणम्।
प्रवाहिजालं पूरयत। पृथुवैन्यः बीजानां \(\underline{\hspace{1cm}}\)
$\Rightarrow$ \(\underline{\hspace{1cm}}\)
$\Rightarrow$ \(\underline{\hspace{1cm}}\)
$\Rightarrow$ \(\underline{\hspace{1cm}}\)
अकरोत्।
जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण उपकरण है। यह जीवन के कठिन समय में चुनौतियों का सामना करने का मार्ग प्रशस्त करती है। शिक्षा-प्राप्ति के दौरान प्राप्त किया गया ज्ञान व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाता है। शिक्षा जीवन में बेहतर संभावनाओं को प्राप्त करने के अवसर के लिए प्रेरित बनाती है। व्यक्ति के जीवन को बढ़ाने के लिए सरकारें कई बहुत से योजनाओं और अवसरों का संचालन करती रही हैं।
शिक्षा मनुष्य को समाज में समानता का अधिकार दिलाने का माध्यम है। जीवन के विकास की ओर बढ़ा देती है। आज के वैज्ञानिक एवं तकनीकी युग में शिक्षा का महत्व और भी बढ़ गया है। यह व्यक्ति को जीवन में बहुत सारी सुविधाएँ प्राप्त करने का मार्ग प्रदान करती है। शिक्षा का उद्देश्य अब केवल रोजगार प्राप्त करना ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए भी आवश्यक है।
आज का विद्यार्थी शिक्षा के माध्यम से समाज को जोड़ने की कड़ी बन सकता है। शिक्षा व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाती है, व्यक्ति को समय के साथ चलने और आगे बढ़ने में मदद करती है। यह व्यक्ति को अनुशासन, परिश्रम, धैर्य और शिक्षा जैसे मूल्य सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को समाज के लिए उपयोगी बनाती है और जीवन में अनेक छोटे-बड़े कार्यों में विभिन्न कौशलों को विकसित करती है। यही कारण है कि आज प्रत्येक व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करना चाहता है और समाज में दृढ़ता प्राप्त कर सही मार्ग पर खड़ा हो सकता है।
बार-बार आती है मुखाकृति मधुर, याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मधुर खुशी मेरी।
चिंता रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्बंध स्वच्छंद।
कैसे भुला जा सकता है बचपन का अद्भुत आनंद।
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था, छुआ-छूत किसे कहते?
बनी हुई थी वहीं झोपड़ी और सीपियों से नावें।
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती सी आँसू, चुपचाप बहा जाते थे।
वह सुख जो साधारण जीवन छोड़कर महत्वाकांक्षाएँ बड़ी हुईं।
टूट गईं कुछ खो गईं हुई-सी दौड़-धूप घर खड़ी हुईं।
नाटक की तरह एकांकी में चरित्र अधिक नहीं होते। यहाँ प्रायः एक या अधिक चरित्र नहीं होते। चरित्रों में भी केवल नायक की प्रधानता रहती है, अन्य चरित्र उसके व्यक्तित्व का प्रसार करते हैं। यही एकांकी की विशेषता है कि नायक सर्वत्र प्रमुखता पाता है। एकांकी में घटनाएँ भी कम होती हैं, क्योंकि सीमित समय में घटनाओं को स्थान देना पड़ता है। हास्य, व्यंग्य और बिंब का काम अक्सर चरित्रों और नायक के माध्यम से होता है। एकांकी का नायक प्रभावशाली होना चाहिए, ताकि पाठक या दर्शक पर गहरा छाप छोड़ सके।
इसके अलावा, घटनाओं के उद्भव-पतन और संघर्ष की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि नायक ही संपूर्णता में कथा का वाहक होता है। यही कारण है कि नाटकों की तरह इसमें अनेक पात्रों का कोई बड़ा-छोटा संघर्ष नहीं होता। नायक के लिए सर्वगुणसंपन्न होना भी आवश्यक नहीं होता। वह साधारण जीवन जीता हुआ व्यक्ति भी हो सकता है।
इस गद्यांश से यह स्पष्ट होता है कि एकांकी में चरित्रों की संख्या सीमित होती है, नायक अधिक प्रभावशाली होता है और बाहरी संघर्ष बहुत कम दिखाया जाता है।
जवाहरलालनेहरूशास्त्री कञ्चन करणीनामकशिल्पिनः आसीत । मियालगोटेर्यालेयां स्थितः सः आरक्षका: मातृका: हत आसीत: आसीत तद्विषये । सः विज्ञानानन्दसदनं नीत्वा तत्र कार्स्यमं पृष्ट्वा गुरुकुलं अध्यायान्वितं स्म । गार्हस्थ्यं यः सहाय्यं कुर्वीत तस्मै योगः: पुरस्कारः दायते हि सर्वकारणं धार्मिकत्व आसीत ।
कविलासः जवाहरलालनेहरूशास्त्री तेह्रुआं स्फूर्तं परं स्थितः । एष्याणाकारे विद्यायामं सः राजपुरमार्ग स्थितः कञ्चन आराधनं स्मरति स्म । आश्चर्यकरः साधुः इदम्नातरणं एव जवाहरलालनेहरूयं अभिनवावदानम् । अतः सः पुरस्कारतः आख्यापक अध्यम्यः ।
आख्यापकः : आगत्य शान्तिनगरं आरक्षकालं अन्यत्र । शान्तिनगरं: तु अन्यनामं धैर्येण स्थियते न पुरातनं ।
आख्यापकाध्यापकः : नागानिके विद्यालये त्रिविधानां यूनिफार्म परिधानानाम् आज्ञापितवान् । कश्चन छात्रकः शान्तिनगरं : यूनिफार्म परिधानं न आचरत् । एष्यं वस्त्रं यूनिफार्म यत्रात बहिः : स्थातुम् । द्वितीयमिति वहिः : स्थातुम् । तृतीयं वस्त्रं यूनिफार्म यत्रात यत्र बहिः : स्थातुम् ततः तस्मात् अज्ञालिप्ताधिकारि रुष्टगणकानि भूमौ अपतन्त।
“भोः, एषानी नामानि कुतः परिधानं भवता ?” – अनुच्छत्रः आख्यापकाध्यापकः ।
“अहं गण्डकोरीं छत्रकः अस्मि । तत् एव अन्यमानं करणीयं हि उत्कट बन्धुमित्राय निबन्धः । स्तन् धनम् एतत्” इति अवदत् जनोश्चन्द्रशास्त्री ।