गद्यांशः
एकस्मिन् दिने आचार्यः शिष्यगणेन सह गङ्गास्नानार्थम् अगच्छत्। तदा मार्गे कोऽपि दरिद्रः मलिनकायः, जीर्णवस्त्रधारी मनुष्यः तस्य पुरतः आगच्छत्। तं दृष्ट्वा शिष्याः तम्, 'अपसर, अपसर' इति उच्चैः अवदन्।
सः मनुष्यः अपृच्छत्- "अपसर, अपसर इति कं वदसि? शरीरं वा आत्मानं वा? आत्मा तु परमेश्वरस्य अंशः अतः सर्वेषां समानः एव। तथा च सर्वेषां शरीराणि पञ्चमहाभूतात्मकानि। तर्हि कथं तव शरीरं मम शरीराद् भिन्नम्, अहं च त्वद् भिन्नः?" वेदान्ततत्त्वस्य सारं तस्य मुखात् श्रुत्वा आचार्यः तं प्रणनाम। ज्ञानं तु कस्मादपि ग्राह्यम्। यस्माद् ज्ञानं लभते स गुरुरेव इति विचारेण आचार्यः तत्रैव 'मनीषापञ्चकम्' इति स्तोत्रं रचितवान्।
एवम् आसेतुहिमाचलं पर्यटन् अद्वैत-सिद्धान्तस्य प्रचारम् अकरोत् सः।
अष्टवर्षे चतुर्वेदी द्वादशे सर्वशास्त्रवित्।
षोडशे कृतवान् भाष्यं द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात्॥
उचितं कारणं चित्वा वाक्यं पुनर्लिखत।
शङ्करः मलिनकायं मनुष्यं प्रणनाम यतः
कः कं वदति ? 'अपसर अपसर' इति कं वदसि ?
वाक्यं पुनर्लिखित्वा सत्यम्/असत्यम् इति लिखत। यस्मात् ज्ञानं लभते सः गुरुः।
अमरकोषात् शब्दं योजयित्वा वाक्यं पुनर्लिखत। मार्गे कोऽपि मनुष्यः तस्य पुरतः आगच्छत्।
सन्धिविग्रहं कुरुत। पूर्वपदं उत्तरपदं च लिखत।
(1) तत्रैव = \(\underline{\hspace{1.5cm}}\) + \(\underline{\hspace{1.5cm}}\)
(2) कस्मादपि = \(\underline{\hspace{1.5cm}}\) + \(\underline{\hspace{1.5cm}}\)
विशेषण-विशेष्ययोः मेलनं कुरुत।
'अ' \(\hspace{4cm}\) 'आ'
(1) दरिद्रः \(\hspace{3cm}\) (1) शरीरम्
(2) भिन्नम् \(\hspace{3cm}\) (2) शिष्यः
(3) मनुष्यः
गद्यांशात् द्वे त्वान्त-अव्यये चित्वा लिखत।
पदक्षेपः 1: प्रश्नस्य अवगमनम्:
अस्मिन् प्रश्ने, गद्यांशात् 'क्त्वा' प्रत्ययान्तौ (अर्थात् 'त्वान्त') द्वौ अव्ययौ चित्वा लेखितव्यौ।
(In this question, we have to pick two indeclinable words ending in the 'ktvā' suffix (i.e., 'tvānta') from the passage.)
पदक्षेपः 2: गद्यांशस्य विश्लेषणम्:
'क्त्वा' प्रत्ययः 'कृत्वा' (having done) इत्यर्थे प्रयुज्यते। गद्यांशं पठित्वा तादृशानि पदानि अन्वेषणीयानि।
(The 'ktvā' suffix is used in the sense of 'having done'. We need to search for such words by reading the passage.)
गद्यांशे एकं पदं स्पष्टतया दृश्यते: "...वेदान्ततत्त्वस्य सारं तस्य मुखात् श्रुत्वा आचार्यः तं प्रणनाम।"
(One word is clearly visible in the passage: "...ācāryaḥ taṁ praṇanāma śrutvā (having heard) the essence of Vedanta from his mouth.")
\[\begin{array}{rl} \bullet & \text{श्रुत्वा (√श्रु + क्त्वा)} \\ \end{array}\] गद्यांशे द्वितीयं त्वान्त-अव्ययं स्पष्टतया न दृश्यते। प्रायः प्रश्नपत्रे काचित् त्रुटिः स्यात्। तथापि, यदि पूर्वतनं गद्यांशं (२अ) पश्यामः, तत्र 'दृष्ट्वा' तथा 'उक्त्वा' इति पदे स्तः। किन्तु 'गद्यांशात्' इति एकवचनेन निर्देशः केवलम् इमं (२आ) गद्यांशं सूचयति।
(A second tvānta-avyaya is not clearly visible in the passage. There might be an error in the question paper. However, if we look at the previous passage (2a), the words 'dṛṣṭvā' and 'uktvā' are present. But the instruction 'gadyānśāt' in singular points only to this passage (2ā).)
पदक्षेपः 3: अन्तिमम् उत्तरम्:
गद्यांशे एकम् एव त्वान्त-अव्ययम् अस्ति:
(There is only one tvānta-avyaya in the passage:)
जालरेखाचित्रं पूरयत। 
पदक्षेपः 1: प्रश्नस्य अवगमनम्:
अत्र शङ्कराचार्यस्य जीवनस्य प्रमुखघटनानां विषये दत्तं जालरेखाचित्रं गद्यांशस्य अन्ते स्थितेन श्लोकेन पूरणीयम्।
(Here, the given web diagram about the major life events of Shankaracharya needs to be completed using the verse at the end of the passage.)
पदक्षेपः 2: श्लोकात् सूचना सङ्कलनम्:
श्लोकः:
"अष्टवर्षे चतुर्वेदी द्वादशे सर्वशास्त्रवित्।
षोडशे कृतवान् भाष्यं द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात्॥"
अस्य श्लोकस्य अर्थानुसारं घटनाक्रमः:
(According to the meaning of this verse, the sequence of events is:) \[\begin{array}{rl} \bullet & \text{अष्टवर्षे (At the age of eight) -> चतुर्वेदी (became master of the four Vedas)} \\ \bullet & \text{द्वादशे (At the age of twelve) -> सर्वशास्त्रवित् (became knower of all scriptures)} \\ \bullet & \text{षोडशे (At the age of sixteen) -> कृतवान् भाष्यं (wrote the commentaries/Bhashyas)} \\ \bullet & \text{द्वात्रिंशे (At the age of thirty-two) -> मुनिरभ्यगात् (the sage passed away/attained liberation)} \\ \end{array}\] पदक्षेपः 3: जालरेखाचित्रस्य पूरणम्:
दत्तस्य चित्रस्य रिक्तस्थानानि एवं पूरणीयानि:
(The blanks in the given diagram should be filled as follows:)
द्वात्रिंशे मुनिः अभ्यगात्।
\(\uparrow\)
षोडशे भाष्यं कृतवान्।
\(\uparrow\)
द्वादशे सर्वशास्त्रवित्।
\(\uparrow\)
अष्टवर्षे चतुर्वेदी।
\(\uparrow\)
\(\fbox{शङ्कराचार्यः}\)
जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण उपकरण है। यह जीवन के कठिन समय में चुनौतियों का सामना करने का मार्ग प्रशस्त करती है। शिक्षा-प्राप्ति के दौरान प्राप्त किया गया ज्ञान व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाता है। शिक्षा जीवन में बेहतर संभावनाओं को प्राप्त करने के अवसर के लिए प्रेरित बनाती है। व्यक्ति के जीवन को बढ़ाने के लिए सरकारें कई बहुत से योजनाओं और अवसरों का संचालन करती रही हैं।
शिक्षा मनुष्य को समाज में समानता का अधिकार दिलाने का माध्यम है। जीवन के विकास की ओर बढ़ा देती है। आज के वैज्ञानिक एवं तकनीकी युग में शिक्षा का महत्व और भी बढ़ गया है। यह व्यक्ति को जीवन में बहुत सारी सुविधाएँ प्राप्त करने का मार्ग प्रदान करती है। शिक्षा का उद्देश्य अब केवल रोजगार प्राप्त करना ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए भी आवश्यक है।
आज का विद्यार्थी शिक्षा के माध्यम से समाज को जोड़ने की कड़ी बन सकता है। शिक्षा व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाती है, व्यक्ति को समय के साथ चलने और आगे बढ़ने में मदद करती है। यह व्यक्ति को अनुशासन, परिश्रम, धैर्य और शिक्षा जैसे मूल्य सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को समाज के लिए उपयोगी बनाती है और जीवन में अनेक छोटे-बड़े कार्यों में विभिन्न कौशलों को विकसित करती है। यही कारण है कि आज प्रत्येक व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करना चाहता है और समाज में दृढ़ता प्राप्त कर सही मार्ग पर खड़ा हो सकता है।
बार-बार आती है मुखाकृति मधुर, याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मधुर खुशी मेरी।
चिंता रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्बंध स्वच्छंद।
कैसे भुला जा सकता है बचपन का अद्भुत आनंद।
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था, छुआ-छूत किसे कहते?
बनी हुई थी वहीं झोपड़ी और सीपियों से नावें।
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती सी आँसू, चुपचाप बहा जाते थे।
वह सुख जो साधारण जीवन छोड़कर महत्वाकांक्षाएँ बड़ी हुईं।
टूट गईं कुछ खो गईं हुई-सी दौड़-धूप घर खड़ी हुईं।
नाटक की तरह एकांकी में चरित्र अधिक नहीं होते। यहाँ प्रायः एक या अधिक चरित्र नहीं होते। चरित्रों में भी केवल नायक की प्रधानता रहती है, अन्य चरित्र उसके व्यक्तित्व का प्रसार करते हैं। यही एकांकी की विशेषता है कि नायक सर्वत्र प्रमुखता पाता है। एकांकी में घटनाएँ भी कम होती हैं, क्योंकि सीमित समय में घटनाओं को स्थान देना पड़ता है। हास्य, व्यंग्य और बिंब का काम अक्सर चरित्रों और नायक के माध्यम से होता है। एकांकी का नायक प्रभावशाली होना चाहिए, ताकि पाठक या दर्शक पर गहरा छाप छोड़ सके।
इसके अलावा, घटनाओं के उद्भव-पतन और संघर्ष की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि नायक ही संपूर्णता में कथा का वाहक होता है। यही कारण है कि नाटकों की तरह इसमें अनेक पात्रों का कोई बड़ा-छोटा संघर्ष नहीं होता। नायक के लिए सर्वगुणसंपन्न होना भी आवश्यक नहीं होता। वह साधारण जीवन जीता हुआ व्यक्ति भी हो सकता है।
इस गद्यांश से यह स्पष्ट होता है कि एकांकी में चरित्रों की संख्या सीमित होती है, नायक अधिक प्रभावशाली होता है और बाहरी संघर्ष बहुत कम दिखाया जाता है।
जवाहरलालनेहरूशास्त्री कञ्चन करणीनामकशिल्पिनः आसीत । मियालगोटेर्यालेयां स्थितः सः आरक्षका: मातृका: हत आसीत: आसीत तद्विषये । सः विज्ञानानन्दसदनं नीत्वा तत्र कार्स्यमं पृष्ट्वा गुरुकुलं अध्यायान्वितं स्म । गार्हस्थ्यं यः सहाय्यं कुर्वीत तस्मै योगः: पुरस्कारः दायते हि सर्वकारणं धार्मिकत्व आसीत ।
कविलासः जवाहरलालनेहरूशास्त्री तेह्रुआं स्फूर्तं परं स्थितः । एष्याणाकारे विद्यायामं सः राजपुरमार्ग स्थितः कञ्चन आराधनं स्मरति स्म । आश्चर्यकरः साधुः इदम्नातरणं एव जवाहरलालनेहरूयं अभिनवावदानम् । अतः सः पुरस्कारतः आख्यापक अध्यम्यः ।
आख्यापकः : आगत्य शान्तिनगरं आरक्षकालं अन्यत्र । शान्तिनगरं: तु अन्यनामं धैर्येण स्थियते न पुरातनं ।
आख्यापकाध्यापकः : नागानिके विद्यालये त्रिविधानां यूनिफार्म परिधानानाम् आज्ञापितवान् । कश्चन छात्रकः शान्तिनगरं : यूनिफार्म परिधानं न आचरत् । एष्यं वस्त्रं यूनिफार्म यत्रात बहिः : स्थातुम् । द्वितीयमिति वहिः : स्थातुम् । तृतीयं वस्त्रं यूनिफार्म यत्रात यत्र बहिः : स्थातुम् ततः तस्मात् अज्ञालिप्ताधिकारि रुष्टगणकानि भूमौ अपतन्त।
“भोः, एषानी नामानि कुतः परिधानं भवता ?” – अनुच्छत्रः आख्यापकाध्यापकः ।
“अहं गण्डकोरीं छत्रकः अस्मि । तत् एव अन्यमानं करणीयं हि उत्कट बन्धुमित्राय निबन्धः । स्तन् धनम् एतत्” इति अवदत् जनोश्चन्द्रशास्त्री ।