हर देश की पहचान उसकी संस्कृति, परंपरा और इतिहास से बनती है — और इनका मूर्त रूप होती हैं उसकी ऐतिहासिक धरोहरें।
भारत जैसे देश में जहाँ विविध सभ्यताओं, राजवंशों और धार्मिक परंपराओं का समृद्ध इतिहास रहा है, वहाँ धरोहरें केवल पुरानी इमारतें नहीं, बल्कि अतीत से वर्तमान तक की जीवंत कड़ियाँ होती हैं।
ताजमहल, कुतुब मीनार, साँची स्तूप, अजंता-एलोरा की गुफाएँ, दक्षिण भारत के मंदिर, झाँसी का किला — ये सभी न केवल स्थापत्य-कला की मिसाल हैं, बल्कि हमारी सामाजिक चेतना, कला, वास्तुकला और धर्म के इतिहास को जीवंत बनाती हैं।
धरोहरों से युवाओं को प्रेरणा मिलती है, उन्हें अपने अतीत पर गर्व होता है और एक सांस्कृतिक निरंतरता का बोध होता है।
ये धरोहरें पर्यटन को बढ़ावा देती हैं, जिससे अर्थव्यवस्था को बल मिलता है और स्थानीय रोजगार उत्पन्न होता है।
परंतु चिंता की बात यह है कि इन धरोहरों का संरक्षण अभी भी समुचित नहीं हो पा रहा। अतिक्रमण, उपेक्षा, जलवायु प्रभाव और जन-अनभिज्ञता के कारण ये अमूल्य धरोहरें नष्ट हो रही हैं।
संरक्षण केवल पुरातत्त्व विभाग की जिम्मेदारी नहीं, हर नागरिक का कर्तव्य है।
अतः ऐतिहासिक धरोहरें हमारी अस्मिता की वाहक हैं — इन्हें सुरक्षित रखना एक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व है, जो देश की पहचान को अक्षुण्ण रखने के लिए आवश्यक है।