चरण 1: प्रवर्तक और ग्रन्थ।
कपिल को परम्परा में सांख्य दर्शन का प्रवर्तक माना जाता है। उनके विचारों का सूत्रबद्ध रूप आगे चलकर ईश्वरकृष्ण के सांख्यकारिका में मिलता है, जिसमें सांख्य का तत्त्व-शास्त्र सुव्यवस्थित हुआ।
चरण 2: सांख्य का सार।
सांख्य दो मूल तत्त्व मानता है—पुरुष (चेतन, अनेक, निष्क्रिय साक्षी) और प्रकृति (अचेतन, त्रिगुण—सत्त्व, रजस, तमस)। प्रकृति के विकार क्रम से महत्त, अहंकार, मन, इन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ, महाभूत आदि 24 तत्त्व प्रकट होते हैं। अविद्या से पुरुष स्वयं को प्रकृति-गुणों से अभिदृष्ट मान लेता है; विवेक-ज्ञान से उनका भेद बोध होने पर कैवल्य (मुक्ति) प्राप्त होती है।
चरण 3: विकल्पों का उन्मूलन।
पतंजलि योग के संहिताकार, कणाद वैशेषिक के प्रवर्तक और गौतम न्याय के प्रवर्तक हैं। अतः सांख्य के प्रवर्तक कपिल ही हैं।