चरण 1: अवधारणा स्पष्ट करें। 
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ है—समाज की संस्थाओं, भूमिकाओं और रिश्तों में समय के साथ होने वाला निरंतर और महत्त्वपूर्ण परिवर्तन। यह तभी स्थायी रूप लेता है जब लोगों के मूल्य बदलते हैं—यानी सही–गलत, वांछनीय–अवांछनीय के मानदंड। 
चरण 2: मूल्य–व्यवस्था की केन्द्रीयता। 
जब लिंग-समानता, पर्यावरण-संरक्षण, शिक्षा, विवाह–परिवार आदि के बारे में समाज के मूल्य बदलते हैं, तब क़ानून, नीतियाँ, संस्थागत प्रथाएँ और व्यवहार क्रमशः रूपांतरित होते हैं। इसलिए मूल्य-परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन का आधार बनता है; विश्वास और संस्कृति में बदलाव अक्सर मूल्यों के बदलने का परिणाम/सहचर होते हैं। 
चरण 3: अन्य विकल्प क्यों नहीं। 
(1) प्रतिमान/पैटर्न केवल रूपरेखा है; स्वयं कारण नहीं। (2) सांस्कृतिक व्यवस्था व्यापक है, पर सामाजिक परिवर्तन को दिशा देने वाला तत्व मूल्य है। (3) विश्वास (beliefs) मूल्य से प्रभावित होते हैं; अकेले विश्वास-परिवर्तन सामाजिक संरचनाओं को अनिवार्यतः नहीं बदलता। 
निष्कर्ष: सामाजिक परिवर्तन का सबसे निकट सम्बन्ध मूल्य व्यवस्था से है।