चरण 1: न्याय में प्रमाण-स्वीकार।
न्याय दर्शन चार प्रमाण मानता है—प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द। उद्देश्य है यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष का साधन बनाना, इसलिए सही ज्ञान-मार्गों की स्पष्ट सूची दी जाती है।
चरण 2: संक्षिप्त परिभाषाएँ।
(1) प्रत्यक्ष—इन्द्रिय/मानस संयोग से उत्पन्न तात्कालिक ज्ञान (निरविकल्प–सविकल्प आदि भेद)।
(2) अनुमान—व्याप्ति-स्मृति के आधार पर लिङ्ग से लिङ्गि का ज्ञान; जैसे धुएँ से आग का निष्कर्ष।
(3) उपमान—सादृश्य के माध्यम से अज्ञात वस्तु का ज्ञान; जैसे 'गवय' का ज्ञान, 'गाय के सदृश' सुनकर वन में देखकर पहचानना।
(4) शब्द—आप्तवाक्य/विश्वसनीय वचन से ज्ञान; वैदिक वचन तथा विश्वसनीय विशेषज्ञ का कथन।
चरण 3: विकल्पों का उन्मूलन।
दो और तीन प्रमाण सांख्य/वैशेषिक आदि में मिलते हैं; छः प्रमाण मीमांसा/वेदान्त में स्वीकृत हैं। न्याय का मानक मत चार प्रमाण ही है—अतः सही उत्तर (3)।