चरण 1: 'शब्द' प्रमाण की परिभाषा।
न्याय-दर्शन में शब्द एक स्वतंत्र प्रमाण है—आप्त (विश्वसनीय/सत्यवक्ता/सक्षम) व्यक्ति का कथन यथार्थ ज्ञान का स्रोत होता है। ग्रन्थ, गुरु, विशेषज्ञ—ये सब आप्त-वाक्य की श्रेणी में आते हैं।
चरण 2: 'आप्त' की लाक्षणिकता।
आप्त वह है जो (i) तत्त्व-ज्ञान रखता हो, (ii) सत्यभाषी हो, (iii) हितैषी हो—अर्थात जान-बूझकर भ्रमित न करता हो। इसलिए उसके उपदेश/वचन से प्राप्त ज्ञान प्रमाणित माना जाता है।
चरण 3: विकल्पों का परीक्षण।
(2) आम आदमी का कथन तब तक प्रमाण नहीं जब तक वह आप्त न हो।
(3) दोनों कहना अनुचित है—क्योंकि सभी ''आम'' कथन प्रमाणित नहीं होते।
(4) आप्त स्त्री भी वस्तुतः 'आप्त' की परिभाषा में आती है; पर न्याय परम्परा में शब्द "आप्त पुरुष" के रूप में अभिव्यक्त हुआ है (यहाँ 'पुरुष' सामान्य person अर्थ में प्रयुक्त है)। दिए विकल्पों में शास्त्रीय पदबंध (1) ही उपयुक्त है।