चरण 1: जैन मत की पहचान।
जैन दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद है—वास्तविकता बहुपक्षीय है; किसी वस्तु का निरपेक्ष एकांगी कथन अधूरा होता है। इसी से स्याद्वाद उत्पन्न होता है, जिसमें कथन सशर्त होकर किए जाते हैं—"स्यात्" (किसी दृष्टि से) यह है, नहीं है, दोनों है-नहीं है, अवक्तव्य है… आदि सप्तभंगी रूपों में। यह पद्धति भिन्न संदर्भों में विरोधाभासी प्रतीत कथनों को समन्वित करती है।
चरण 2: अन्य विकल्प क्यों नहीं?
आरंभवाद प्रायः न्याय–वैशेषिक की कारण-वेदना से जुड़ा है (नवीन गुण/कर्म का आरम्भ)। अनात्मवाद बौद्ध मत है—स्थायी आत्मा का निषेध। विवर्तवाद अद्वैत वेदान्त का सिद्धान्त है—जगत ब्रह्म का नाम-रूपात्मक प्रतीति है, वास्तविक परिवर्तन नहीं। ये जैन मत नहीं हैं।
चरण 3: निष्कर्ष।
इस प्रकार जैन दर्शन स्याद्वाद/अनेकान्तवाद को मानता है; अतः सही विकल्प (1) स्याद्वाद।