चरण 1: सिद्धान्त की पहचान।
अनेकान्तवाद जैन दर्शन का केंद्रीय मत है—वास्तविकता अनेकों पक्षों (many-sided) से युक्त है; किसी भी वस्तु का एकांगी, निरपेक्ष कथन अपूर्ण होता है। वस्तु द्रव्य–क्षेत्र–काल–भाव के भिन्न-भिन्न संदर्भों में भिन्न रूप से कथनीय है।
चरण 2: संबद्ध उपदर्शन।
अनेकान्तवाद से ही स्याद्वाद (सप्तभंगी नय) और नयवाद (standpoint theory) उत्पन्न होते हैं—''स्यात्'' (किसी दृष्टि से) कहकर सशर्त कथन किए जाते हैं: स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अवक्तव्य… आदि, जिससे विरोधी प्रतीत कथन भी संदर्भ बदलने पर समन्वित हो जाते हैं।
चरण 3: अन्य विकल्पों का उन्मूलन।
बौद्ध का प्रमुख मत क्षणिकवाद/अनात्मवाद, न्याय का यथार्थवाद/प्रमाण-तर्कशास्त्र, और योग का चित्तवृत्ति-निरोध—ये सभी अनेकान्तवाद के सिद्धान्त नहीं हैं। अतः सही उत्तर जैन दर्शन है।