चरण 1: तत्त्वमीमांसा बनाम ज्ञानमीमांसा।
तत्त्वमीमांसा (Metaphysics) सत्ता/वस्तु क्या है—इस प्रश्न का उत्तर देती है; जबकि ज्ञानमीमांसा हम जानते कैसे हैं पर विचार करती है। जैन परम्परा में अनेकान्तवाद वस्तु-तत्त्व का सिद्धान्त है: वस्तु अनेक पक्षों/अनन्त धर्मों से युक्त है; इसलिए वह न तो केवल एक रूप में, न केवल विपरीत रूप में कथ्य है—सापेक्ष रूप में दोनों कथन किसी-न-किसी नय से सत्य हो सकते हैं। यह जैन तत्त्वमीमांसा का मूल है।
चरण 2: अन्य विकल्प क्यों नहीं?
(4) स्यादवाद जैन ज्ञानमीमांसीय/तर्कमीमांसीय सिद्धान्त है—बहु-पक्षीय यथा-भूत कथन की सप्त-भंगी नय (स्यात्-इत्यादि) रूप पद्धति; यह अनेकान्त का वक्तव्य-शास्त्र है, स्वयं तत्त्व-सिद्धान्त नहीं।
(1) देहात्मवाद चार्वाक का मत है—आत्मा = देह; जैन में यह मान्य नहीं।
(2) शाश्वतवाद (सर्वथा-नित्यत्व का एकांगी आग्रह) जैन बहुपक्ष-दृष्टि से असंगत है। इसलिए जैन तत्त्व-सिद्धान्त अनेकान्तवाद ही है।