चरण 1: चार आर्य सत्यों का संदर्भ।
दूसरा आर्य सत्य समुदय बताता है कि दुःख का कारण तृष्णा है—वस्तुओं, भोगों, अस्तित्व और अनस्तित्व के लिए अतृप्त लालसा। यही प्रवृत्ति पुनर्जन्म के चक्र को चलाती है और मन में आसक्ति, द्वेष, मोह को पोषित करती है।
चरण 2: तृष्णा के रूप।
बौद्ध साहित्य तीन प्रमुख प्रकार बताता है: काम-तृष्णा (इन्द्रिय-भोग), भव-तृष्णा (अस्तित्व/सत्ता के प्रति चिपकाव), विभव-तृष्णा (अनस्तित्व/विनाश की चाह)। ये तीनों क्लेशों और कर्मों को उत्पन्न कर उपादान और आगे भव–जाति–जरामरण की श्रृंखला को जन्म देते हैं।
चरण 3: प्रतित्यसमुत्पाद से सामंजस्य।
बारह निदानों में आरम्भ अविद्या से माना गया है, पर दुःख की तात्त्विक जड़ का व्यावहारिक निदान बुद्ध ने तृष्णा-क्षय के रूप में दिया—इसीलिए समुदय सत्य का सूत्र वाक्य "तृष्णा" है। जाति और नामरूप मध्य-निदान हैं, मूल कारण नहीं। अतः सही उत्तर तृष्णा।