यह कथन पाठ में पारंपरिक जल-संरक्षण की उपयोगिता और हमारी सांस्कृतिक समझ की महत्ता को रेखांकित करता है। लेखक ने मालवा क्षेत्र के ग्राम्य जीवन का वर्णन करते हुए यह समझाया है कि स्थानीय जलस्रोतों — जैसे नदी, नाले, तालाब, कुएँ आदि — की देखभाल करना केवल पारंपरिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि एक दीर्घकालिक सामाजिक निवेश है।
लेखक का तात्पर्य यह है कि जो समाज अपने पारंपरिक जल स्रोतों की रक्षा करते हैं, वे जल-संकट या सूखे जैसी आपदाओं में भी सुरक्षित रहते हैं। जल संरक्षण कोई नया विचार नहीं, बल्कि हमारी “खाऊँ-उजाऊ सभ्यता” का मूलभूत मूल्य रहा है। मालवा जैसे अर्धशुष्क क्षेत्र में वर्षा सीमित होती है, लेकिन वहां के लोग अपने खेतों के पास “तलाई”, “बावड़ी”, “नाड़ी” और “पाटा” जैसी संरचनाओं का निर्माण करते थे, ताकि जल संचयन हो और कठिन समय में उनका उपयोग किया जा सके।
उदाहरण: लेखक ने देखा कि गाँवों में लोग वर्षा के पानी को बचाकर “पक्की बावड़ियाँ” बनाते थे, जिनमें पूरे साल पानी रहता था। पुराने समय में ‘नदी को माँ’ माना जाता था, और लोग जल को सिर्फ उपयोग की वस्तु नहीं, बल्कि देवत्व से जुड़ा भाव समझते थे। यह भाव ही उन्हें अपने स्रोतों की रक्षा के लिए प्रेरित करता था।
वर्तमान समय में जब जल-संकट और जलवायु परिवर्तन गहराता जा रहा है, यह कथन अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है। आज शहरीकरण और आधुनिक निर्माण कार्यों ने तालाबों को पाट दिया, नालों को सीमेंट से ढक दिया, और वर्षा जल बहकर व्यर्थ चला जाता है। यदि हम पारंपरिक जलसंरक्षण की तरफ लौटें, तो “दु:खकाल का साल मज़े में निकल जाएगा।”
निष्कर्ष: यह कथन केवल जल संरक्षण का उपदेश नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना, स्थानीय पर्यावरण समझ और सामूहिक उत्तरदायित्व का प्रतीक है। “अपना मालवा खाऊँ-उजाउ सभ्यता में...” यह भाव भारत की ग्राम्य संस्कृति का स्थायी मूल्य है, जिसे आज पुनः अपनाने की आवश्यकता है।