अगर विद्यालय और अधिक समावेशी हों तब शिक्षा का उद्देश्य केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित न रहकर मानवता, समानता और संवेदना की वास्तविक भूमि पर खड़ा होगा।
एक समावेशी विद्यालय वह होता है जहाँ जाति, धर्म, लिंग, भाषा, शारीरिक या मानसिक स्थिति — कोई भी भेदभाव बाधक न बने।
कल्पना कीजिए — एक ऐसा कक्षा-कक्ष जहाँ एक दृष्टिबाधित छात्र ब्रेल में पढ़ रहा है, वहीं एक अन्य छात्र सांकेतिक भाषा में उत्तर दे रहा है, और शिक्षक दोनों के साथ संवाद करने में समर्थ है।
ऐसे वातावरण में सभी विद्यार्थियों को समान अवसर मिलता है — सीखने के, प्रश्न पूछने के, और अपने भीतर की क्षमता को पहचानने के।
समावेशी विद्यालय न केवल विद्यार्थियों के बीच, बल्कि अभिभावकों और शिक्षकों के बीच भी सहिष्णुता और सहयोग की भावना को बढ़ावा देते हैं।
ऐसे विद्यालयों में पाठ्यक्रम की विविधता होती है, गतिविधियाँ सबकी भागीदारी को ध्यान में रखकर तैयार की जाती हैं, और मूल्यांकन की पद्धतियाँ लचीली होती हैं।
जब एक छात्र यह देखता है कि उसका विशेष आवश्यकता वाला सहपाठी भी मंच पर कविता सुना सकता है या चित्र बना सकता है, तो उसमें करुणा, सहयोग और विविधता को सम्मान देने की भावना उत्पन्न होती है।
समावेशी शिक्षा का प्रभाव दीर्घकालिक होता है — यह एक ऐसे नागरिक का निर्माण करती है जो न केवल स्वयं आगे बढ़ता है, बल्कि समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलने की भावना रखता है।