चरण 1: व्यापार की मूल प्रकृति।
व्यापार का मूल उद्देश्य लाभ कमाते हुए मूल्य-निर्माण करना है। उत्पादन, क्रय–विक्रय, वितरण, जोखिम-वहन और पूँजी-निवेश जैसी क्रियाएँ अंततः आय–व्यय के अंतर अर्थात लाभ के लिए संगठित की जाती हैं। इसलिए व्यापार को लाभोन्मुखी गतिविधि कहा जाता है।
चरण 2: नैतिकता और सामाजिक दायित्व।
लाभोन्मुखी होना अनैतिक या क्रूर होना नहीं है। आधुनिक व्यवसाय कानूनी अनुपालन, ग्राहकों के हित, कॉरपोरेट गवर्नेंस और सीएसआर के माध्यम से समाज-हित का भी अनुसरण करता है। स्थायी लाभ वही है जो नैतिक आचरण, गुणवत्ता और विश्वास पर टिका हो। इसीलिए व्यापार को अनैतिक/क्रूर कहना गलत सामान्यीकरण है, जबकि उसकी परिभाषा में लाभ-प्रेरणा स्वाभाविक तत्व है।
चरण 3: निष्कर्ष/उन्मूलन।
विकल्प (1) और (2) मूल्य-निर्णय हैं, पर व्यापार की सार्वभौमिक विशेषता नहीं। सही विशेषता लाभोन्मुखी होना है; अतः उत्तर (3)।