धर्मशास्त्रीय परम्परा में मनुष्य जन्म से त्रि–ऋण का भागी माना गया है—देव ऋण (यज्ञ/उपासना द्वारा), ऋषि ऋण (अध्ययन–अध्यापन/विद्या-संरक्षण द्वारा), और पितृ ऋण (संतानोत्पत्ति, पितृ-तर्पण तथा वंश-रक्षा द्वारा)। इन तीनों का व्यावहारिक निर्वह मुख्यतः गृहस्थाश्रम में सम्भव है, क्योंकि गृहस्थ ही अर्थोपार्जन, यज्ञ-दान-तर्पण, अतिथि-सत्कार और अन्य आश्रमों (ब्रह्मचारी/वानप्रस्थी/संन्यासी) का भरण-पोषण करता है। ब्रह्मचर्य में तैयारी, वानप्रस्थ/संन्यास में वैराग्य-उन्मुख साधना प्रधान रहती है; ऋण-परिहार का प्रमुख कर्म-क्षेत्र गृहस्थाश्रम है। अतः सही उत्तर (2) है।