पुरुषार्थ के रूप में 'धर्म' की व्याख्या करें।
Step 1: स्थान और भूमिका.
धर्म पुरुषार्थ-सरणी का नियामक—अर्थ/काम की वैधता धर्म से; बिना धर्म के सुख–समृद्धि स्वार्थ/अराजकता बन सकते हैं।
Step 2: स्वधर्म–साधन.
गीता-मतानुसार स्वभावानुकूल कर्तव्य—निष्काम भावना और समत्व सहित—धर्म की व्यावहारिक अभिव्यक्ति है।
Step 3: सामाजिक–न्याय पक्ष.
धर्म न्याय, दया और उत्तरदायित्व का संस्थानीकरण है—सामाजिक भरोसा, सतत विकास और शान्ति के लिए आवश्यक।
Step 4: आध्यात्मिक आयाम.
धर्म चित्त-शुद्धि का साधन; शुद्ध चित्त से ज्ञान/भक्ति/योग फलदायी—मोक्ष की दिशा प्रशस्त होती है।